Sunday 6 December 2015

Dard bhari kavita by jazbaati jatt

अजनबी ख्वाहिशें सीने में दबा भी न सकूँ !
ऐसे जिद्दी हैं परिंदे के उड़ा भी न सकूँ !!

फूँक डालूँगा किसी रोज ये दिल की दुनिया !
ये तेरा खत तो नहीं है कि जला भी न सकूँ !!

मेरी गैरत भी कोई शय है कि महफ़िल में मुझे !
उसने इस तरह बुलाया है कि जा भी न सकूँ !!

इक न इक रोज कहीं ढ़ूँढ़ ही लूँगा तुझको !
ठोकरें ज़हर नहीं हैं कि मैं खा भी न सकूँ  !!

फल तो सब मेरे दरख्तों के पके हैं लेकिन !
इतनी कमजोर हैं शाखें कि हिला भी न सकूँ !!

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